फल-फूल नहीं, भाव के भूखे हैं भगवान
भक्ति का मार्ग सदैव ही भावना से सिंचित रहा है। भगवान की शरण में जाने वाले भक्तों के लिए यह जानना आवश्यक है कि प्रभु फल-फूल या विशाल आराधना के भूखे नहीं, बल्कि शुद्ध भाव के प्यासे हैं। यही संदेश हमारी प्राचीन वाणियों और संतों के उपदेशों में बार-बार प्रकट हुआ है। आइए, इस गहन सत्य को समझें।
भावना: भक्ति का मूल आधार
शास्त्रों में कहा गया है—“भावग्राही जनार्दन”, अर्थात् भगवान तो केवल भाव ग्रहण करते हैं। चाहे एक फूल हो या एक पत्र, यदि वह श्रद्धा से अर्पित किया गया है, तो वह प्रभु को स्वीकार्य है।
भक्ति के तीन स्तंभ
- श्रद्धा: अटूट विश्वास कि प्रभु सर्वशक्तिमान हैं।
- प्रेम: निष्काम भाव से सेवा करने की भावना।
- समर्पण: “तव्यं मम” (सब कुछ तुम्हारा है) की अनुभूति।
प्रमाण: शास्त्रों और संतों की वाणी
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता (9.26) में स्वयं कहा—
“पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥”
अर्थात्, पत्ता, फूल, फल या जल—कोई भी साधन हो, यदि वह भक्ति से अर्पित किया जाए, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ।
संत कबीर का दोहा
“माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर॥”
यह दोहा हमें याद दिलाता है कि बाह्य आडंबरों से अधिक महत्वपूर्ण मन की शुद्धता है।
ऐतिहासिक उदाहरण
1. शबरी का बेर
रामायण में शबरी द्वारा चखे हुए बेर प्रभु राम ने प्रेम से ग्रहण किए। यहाँ भाव की महत्ता स्पष्ट होती है—एक अनपढ़ आदिवासी महिला का निष्काम प्रेम।
2. मीराबाई का एकाकी भजन
मीरा ने राजसी ठाट-बाट छोड़कर केवल “गिरिधर नागर” का नाम जपा। उनकी भक्ति में कोई बाह्य विधि नहीं, केवल हृदय की गहराई थी।
आधुनिक संदर्भ
आज के युग में जहाँ भक्ति को “सोशल मीडिया प्रदर्शन” बना दिया गया है, वहाँ यह समझना आवश्यक है कि:
- मंदिर जाना अच्छा है, पर मन का मंदिर शुद्ध होना अधिक आवश्यक।
- बड़े-बड़े यज्ञ उपयोगी हैं, किंतु अंतरंग आहुति (आत्मसमर्पण) सर्वोपरि है।
कैसे विकसित करें शुद्ध भाव?
1. नाम स्मरण
कलियुग में “हरे कृष्ण महामंत्र” या “राम नाम” का जप सर्वश्रेष्ठ साधन है। संत तुलसीदासजी कहते हैं—“नामु राम को कलपतरु, कलि कल्यान निवासु।”
2. सेवा भाव
भगवान की प्रसन्नता के लिए दीन-दुखियों की सेवा करें। विष्णुपुराण में कहा गया—“जन सेवा ही जनार्दन की सेवा है।”
निष्कर्ष
फल-फूल, धूप-दीप सभी पूजा के अंग हैं, किंतु भावना उसकी आत्मा है। जैसे एक माँ बच्चे के टूटे फूल को भी स्नेह से स्वीकार करती है, वैसे ही प्रभु हमारी छोटी-से-छोटी भक्ति को ग्रहण करते हैं—बशर्ते वह शुद्ध हृदय से अर्पित हो। आइए, भक्ति को भावप्रधान बनाएँ, न कि दिखावे का माध्यम।
सार यही है—”भगवान भोले हैं, भाव के भूखे हैं।”
